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  • रोक-टोक

    सुरक्षा कवच दिव्या और विकास का प्रेमविवाह हुआ था। ज़िंदगी खुशी-खुशी सपनों से सजी हुई प्रतीत होती थी। नई-नई शादी के ये पल बाहर घूमने और मस्ती करने में बहुत ही आनंदपूर्वक व्यतीत हो रहे थे। वैसे भी दोनों अच्छे पद पर एमएनसी में काम करते थे। नई शादी थी घर और ससुराल दोनों अलग शहर में थे। कोई रोक-टोक नहीं थी। सब आराम से चल रहा था। ऐसे करते-करते कब शादी का एक वर्ष बीत गया पता ही नहीं चला।समय के साथ उन दोनों की ज़िंदगी में नए जीवन के आगमन की आहट सुनाई पड़ी। दिव्या और विकास बहुत खुश थे। ऐसे में शुरू के तीन महीने बहुत ही ध्यान रखने के होते हैं। अपने पोता या पोती के आने की प्रतीक्षा में विकास की माताजी गायत्रीजी और पिताजी राघवजी भी बहुत खुश थी। उनको लग रहा था कि कब नन्हे कदम इस दुनिया में आएं और कब वो उसकी तोतली आवाज़ से अपना जी बहलाएं। गायत्रीजी समझती थी कि इस समय एक स्त्री का मन तरह-तरह के व्यंजन खाने को करता है। आज की पीढ़ी वैसे भी इन सब बातों में लापरवाह होती है। उनको लगा कि कुछ समय उन्हें अपने बेटे-बहू के साथ बिताना चाहिए। बस ये सोचकर वो आ गई विकास और दिव्या के पास। शुरू के दिन तो ठीक से निकले पर थोड़े दिन बाद दिव्या को गायत्रीजी का उसकी खाने की आदतों,उसके रहन सहन पर टोकना अपनी दिनचर्या में टांग अड़ाना लगने लगा। गायत्रीजी भी ये बात समझती थी पर उन्हें लगता था किसी तरह से दिव्या के ये शुरू के तीन महीने आराम से निकल जाएं। एक दिन दिव्या के किसी दोस्त के यहां कोई पार्टी थी। गायत्री जी ने उसको थोड़ा देखभाल से खाने पीने की हिदायत दी।दिव्या ये सुनकर पहले ही थोड़ा चिढ़ गई थी,उस पर जब दिव्या ऐसी हालत में ऊंची एड़ी की चप्पल पहनकर जाने लगी तब गायत्रीजी अपने आपको रोक नहीं पाई। उन्होंने दिव्या को आरामदायक चप्पल पहनने के लिए कहा। अब तो दिव्या का पारा चढ़ गया उसने गुस्से में बोला कि मैं बच्ची नहीं हूं,मेरे को अपना ध्यान रखना आता है।जब ड्रेस के साथ ये ही चप्पल मैच कर रही हैं तो मैं यही पहनकर जाऊंगी। वो बड़बड़ाते हुए मोबाइल में देखते हुए बाहर की तरफ जाने लगी।अचानक से बाहर की तरफ जाने वाली सीढ़ी में दिव्या की चप्पल की हील फंस गई वो अपनेआप को संभाल नहीं पाई और गिर गई। वो बेहोश हो गई। ये तो गनीमत थी कि गायत्रीजी उसके पीछे ही आ रही थी। उन्होंने तुरंत उसे सहारा दिया और एक तरफ सुरक्षित लेटा दिया। विकास को फोन किया और एंबुलेंस को फोन करके हॉस्पिटल ले गई।डॉक्टर ने कहा कि चोट ज्यादा नहीं है बच्चा और दिव्या दोनों ठीक हैं पर ऐसी हालत में सतर्कता बहुत जरुरी है।अब दिव्या को भी होश आ गया था। वो बहुत शर्मिंदा थी।उसे समझ आ गया था कि कई बार घर के बड़ों की रोक-टोक टांग अड़ाना नहीं बल्कि प्यार भरी नसीहत होती है जो अपने बच्चों का सुरक्षा कवच होती है।

  • Wife ने Husband को msg किया 🤣🤣

    Wife ने Husband को msg किया:- ऑफिस से लौटते समय सब्ज़ी लेते आना! और हाँ पड़ोसन ने तुम्हारे लिये hello कहा है! Husband : कौन सी पड़ोसन? Wife: कोई नहीं! मैंने केवल इसलिए msg के अंत मे पड़ोसन का नाम लिखा ताकि मैं sure हो सकूँ कि तुमने मेरा पूरा msg पढ़ा! अब कहानी में मोड़ है! Husband :- लेकिन मैं तो पड़ोसन के साथ ही हूँ! तुम किस पड़ोसन के बारे में बता रहीं थीं? Wife :- कहाँ हो तुम? Husband : सब्ज़ी बाजार के पास Wife :- वहीं रुको, मैं अभी आती हूँ! 10 मिनट में सब्ज़ी बाजार पहुँच कर Wife ने Husband को msg किया, कहाँ हो तुम? Husband :- मैं आफिस में हूँ! अब तुम्हें जो सब्ज़ी ख़रीदनी है, खरीद लो! कहानी में एक और मोड़ आता है Wife : पर मैं तो गुस्से में रिक्शा पकड़कर आ गई और मेरा पर्स भी घर रह गया! सब्जी तो दूर रिक्शा वाले का किराया भी कहा से चुकाऊं? प्लीज़ जरा जल्दी आओ! पति : बेवकूफ पर्स तो लेकर आना चाहिये था ना! ठीक है मैं आ रहा हूं! सब्जी मण्डी पहुंचकर : कहॉ हो? Wife: घर पर ही हूं,अब सब्जी लेकर सीधे घर आ जाओ। नारी से तो नारायण नहीं जीत पाये नर क्या चीज़ है

  • बंधन

    "शादी से पहले के विनोद और अब के विनोद मे कितना फर्क है...... कहां तो वो मेरी हर अदा पर शायरी करते नही थकते थे... और अब हफ़्तो बीत जाते हैं पर उनके मुंह से तारीफ का एक शब्द भी नही निकलता..... कहीं ऊब तो नही गए मुझसे....अनु ऐसे ही विचारो में खोई हुई सोच रही थी... "ट्रिंग ट्रिंग...तभी फोन की घंटी ने उसे चौका दिया... "हेलो.... क्या मे विनोद कुमार जी से बात कर सकती हूं, उनका मोबाइल स्वीच ऑफ आ रहा है... दूसरी तरफ से आवाज़ आई... "आप कौन बोल रहीं है ...और विनोद से क्या काम है आपको.... अनु ने संदेहास्पद लहज़े मे पूछा.... "मैं डॉली बोल रही हूं... मुझे विनोद जी से बहुत ज़रूरी बात करना है जो मैं आपको नही बता सकती... आप प्लीज़ उनसे मेरी बात करवा दीजिए" उधर से जवाब... "वो घर पर नही है..... अनु ने गुस्से से कहा और फोन कट कर दिया... "ओह.....तो ये बात है... विनोद कही और इंगेज हो चुके हैं तभी आजकल उनका रवैया बदल गया है... अनु का दिल बैठ गया... विनोद..... अब जब तुम्हारे दिल में ही मैं नहीं तो, क्या फ़ायदा ऐसे रिश्ते को जबरन बांध कर रखने का.... तुम आज़ाद हो, मैंने तुम्हारी जंज़ीरें खोल दी हैं, मैं जा रही हूँ... अनु.... अनु ने पत्र टेबल पर रखा और अपना बेग उठाकर भरी आँखों से दरवाज़े की तरफ़ बढी.... तभी डोरबेल बज उठी.... अनु ने दरवाज़ा खोला, सामने विनोद खड़ा था.... "क्या हुआ.... कहां जा रही हो.... और ये बैग..... .. खैर.... अनु....जानती हो आज तो मै तुम्हें अपने जीवन की सबसे बड़ी खुशखबरी देने वाला हूं.... ये लो, संभालो अपने खुद के घर की चाबी... इसी मे लगा हुआ था, सोच रहा था अपनी एनिवर्सरी से पहले तुम्हें अपने घर की मालकिन बना दूं...... तुम यहां अकेले में बोर हो जाती हो ना...आँफिस के बिल्कुल पास है वो सोसायटी....... अबसे मे तुम्हारे साथ तुम्हारे पास ज्यादा से ज्यादा रह पाऊंगा ...... इतने मे विनोद का मोबाइल बजा.... "हेलो.... हां डॉली जी... थैंक्यू सो मच , मेरा लोन एप्रूवल मिल गया.... आपको दिल से धन्यवाद , आपकी मदद से मेरा सपना पूरा हो सका... अनु ने धीरे से टेबल से वह पत्र उठा लिया और मन ही मन ईश्वर का शुक्रिया अदा किया... "सच मे कुछ बंधन कितने अच्छे होते है...

  • आम का अचार

    * बहु सास और जेठानी का सम्मान मायके वालों से पहले होता है* आज समीर और स्नेहा की नयी फैक्ट्री का उद्घाटन था। देखते ही देखते एक साल में ही इतनी मेहनत करके दोनों पति-पत्नी ने अपनी फैक्ट्री भी खड़ी कर ली। सभी रिश्तेदार आए थे और समीर की खूब तारीफ किए जा रहे थे। भाई और भाभी प्रदीप और माया भी समीर के आगे पीछे ही घूम रहे थे। समीर की माँ ममता जी अपने बेटे की तारीफ सबके सामने किए जा रही थी और बार बार उसकी बलैया लिए जा रही थी। और सब लोग समीर को बधाइयां दिए जा रहे थे। ये अलग बात थी कि इस प्रगति में बहू का भी पूरा योगदान था लेकिन बहू को भला कौन पूछता है? इतने में पंडित जी ने समीर को आवाज देकर कहा, " अरे यजमान पूजा का समय हो गया है। आकर पूजा पूर्ण करवाइए। वैसे भी पूजा मुहूर्त पर ही हो जाए तो ही अच्छा होता है" उनकी बात सुनकर समीर ने कहा, "बस पंडित जी, पाँच मिनट और। स्नेहा अभी आती ही होगी" समीर की बात सुनकर ममता जी ने कहा, " अरे बेटा अगर स्नेहा को आने में देर है तो तेरे भैया भाभी पूजा में बैठ जाएंगे। पर पूजा तो मुहूर्त पर ही होनी चाहिए। पता नहीं स्नेहा कहाँ रह गई? कोई काम समय पर नहीं करती " ममता जी की बात सुनकर सुमीर मुस्कुरा कर बोला, " कोई बात नहीं मां। कितनी ही देर क्यों ना हो जाए। पूजा में तो स्नेहा ही मेरे साथ बैठेगी " उसकी बात सुनकर ममता जी ने कुछ नहीं कहा और मुँह बनाकर रिश्तेदारों में जाकर बैठ गई। और समीर यथावत स्नेहा का इंतजार करने लगा। इंतजार करते करते उसे वो दिन याद हो आया जब स्नेहा उसकी पत्नी बनकर उसकी जिंदगी में आई थी। समीर ज्यादा पढ़ा लिखा नहीं था क्योंकि शुरू से ही पढाई में कमजोर रहा था, इसलिए स्कूल के बाद तो उसने पढ़ाई ही छोड़ दी और छोटी-मोटी नौकरी करने लगा। जबकि समीर का भाई प्रदीप अच्छा खासा पढ़ा लिखा था और अच्छी नौकरी करता था। इस कारण से समीर की मां ममता जी का भी रुझान अपने बेटे प्रदीप की तरफ ही था। जाहिर सी बात है जिसके पति का घर में बोलबाला होता है, उसकी पत्नी का ही सम्मान सबसे ज्यादा होता है। यही हाल घर की बहुओं का था। माया घर में रानी की तरह रहती थी, जबकि स्नेहा घर में सबके लिए एक नौकरानी भर थी। स्नेहा दिन भर घर का काम करती थी पर फिर भी उसके हिस्से सिर्फ ताने आते थे। समीर जो भी कमाता था, वो सब ममता जी के हाथ में लाकर रख देता था। स्नेहा को अगर कुछ चाहिए होता था तो ममता जी से मांगना पड़ता था। पर ममता जी से पहले तो माया ताने सुनाने लग जाती थी। यहां तक कि स्नेहा के खाने पीने में भी रोक टोक थी। माया और ममता जी स्नेहा के थाली पर नजर जरूर रखती थी कि वो अपनी थाली में क्या-क्या लेकर बैठी है। और फिर उसे खाते देखकर जरूर बोलती थी, " हां हां, मुफ्त का माल है। उड़ा लो। बेचारा जेठ तो कोल्हू का बैल बना बैठा है। इन्हें क्या फर्क पड़ता है" स्नेहा का हाथ खाना खाते-खाते रुक जाता। ऐसा नहीं था कि समीर को दिख नहीं रहा था। एक दो बार ममता जी को उसने समझाने की कोशिश भी की थी, पर ममता जी ने उसे ही चुप करा दिया। पर उस दिन, बात कुछ भी नहीं थी। एक आम के आचार की इतनी औकात नहीं होती, जितनी उस दिन स्नेहा को दिखाई गई थी। दरअसल उस दिन रविवार था। घर में सभी सदस्य मौजूद थे इस कारण ममता जी ने स्नेहा को मटर पनीर, दाल मखनी, फ्राइड राइस, गुलाब जामुन और पूरी बनाने को कहा था। माया तो वैसे भी कोई काम नहीं करती थी। स्नेहा ने अकेली ही रसोई में सारा खाना तैयार किया। खाना तैयार करके वो गरमा गरम पूरी तल रही थी और साथ ही सब को खाना परोसती जा रही थी। सब लोगों ने खाना खाया लेकिन किसी ने ये ध्यान नहीं दिया कि स्नेहा के लिए सब्जी बची ही नहीं। स्नेहा खाना खाने बैठी तो उसने देखा कि सब्जी और दाल के बर्तन खाली थे। अब वो खाना कैसे खाती? तभी उसे याद आया कि माया भाभी के मायके से एक दिन पहले ही आम का अचार आया है। तो वो रसोई में से अपने लिए थोड़ा सा आम का आचार निकाल कर ले आई। और उसी के साथ पूरी खाने लगी। उसे खाना खाते देखकर माया ने चिल्लाना शुरू कर दिया, " किस से पूछ कर तुमने आम का अचार निकाला? ये मेरे मायके वालों ने मेरे लिए भेजा है। इतने ही आम के अचार का शौक है तो अपने मायके वालों को बोलो" माया की बात सुनकर स्नेहा की आंखों में आंसू आ गए, " भाभी सब्जी खत्म हो गई थी इसलिए मैंने आचार निकाला। मैंने तो अभी तक खाना भी नहीं खाया" " तो तेरे खाने की जिम्मेदारी हमारी है क्या? घर में रख रखा है। तुम्हारे खर्चे उठा रहे है तो तुम लोग तो सिर पर चढ़कर नाचने लगे हो" माया अभी भी चिल्ला रही थी। उसकी आवाज सुनकर घर में से बाकी सदस्य भी निकल कर बाहर आ गए। ममता जी ने भी माया का पक्ष लेते हुए कहा, " छोटी बहू शर्म नहीं आती तुझे। अरे एक आम के अचार की क्या औकात होती है? जो तूने उसकी चोरी की। पता नहीं घर में से क्या-क्या चुराती होगी" " बस माँ जी बहुत बोल दिया आपने" स्नेहा ने लगभग चिल्लाते हुए कहा। स्नेहा के चिल्लाने की आवाज से कुछ पल के लिए माहौल बिल्कुल शांत हो गया। फिर माया गरजते हुए बोली, " तेरी इतनी हिम्मत कि तू हम पर चिल्ला रही है। हमारा खाती है और हमें ही सुना रही है" कहते हुए माया थप्पड़ मारने के लिए स्नेहा की तरफ बढ़ी तो उसने उसका हाथ पकड़कर मोड़ दिया। हाथ इतनी जोर से मोड़ा की माया की चीख निकल गई। यह देखकर ममता जी चिल्लाई, "समीर तेरी पत्नी को धक्के देकर बाहर निकाल। अब यह इस घर में रहने लायक नहीं" " ठीक है मां, जैसी आपकी मर्जी" समीर का इतना कहते ही माया और ममता जी कुटिल मुस्कान के साथ मुस्कुराई। स्नेहा समीर की तरफ देखने लगी। समीर अंदर कमरे में गया। अपना और स्नेहा का सामान पैक कर कुछ देर बाद बाहर आया और स्नेह का हाथ पकड़ते हुए घर के बाहर निकलने लगा। इतने ममता जी बोली, " अरे तू कहां जा रहा है?" " बस मां, और कितना बर्दाश्त करवाओगी। पता है, इस घर में किसी को स्नेहा की रोटी बुरी नहीं लग रही थी, बल्कि मैं कम कमा रहा हूं वो बुरा लग रहा था। अगर आज मेरी कमाई भी अच्छी होती तो मेरी पत्नी को इतना कुछ सुनना नहीं पड़ता। सारा काम वो करती है पर ताने भी उसी के हिस्से में आते हैं। इसलिए अब आप भी चैन से रहो और हमें भी चैन से रहने दो। इसलिए मैं घर छोड़कर जा रहा हूं" कहता हुआ समीर घर से निकल गया। किसी ने उसे रोकने की कोशिश भी नहीं की। उसके बाद दोनों किराए के कमरे में शिफ्ट हुए। उनकी वहां गृहस्थी बसाने में स्नेहा के माता-पिता ने पूरा योगदान दिया। कुछ दिनों बाद स्नेहा और समीर ने हिम्मत कर लोन लिया और एक छोटी सी टाई और डाई का काम शुरू किया। तब कपड़ों को रंगने का काम एक कमरे से शुरू होकर कब फैक्ट्री में तब्दील हो गया, दोनों को ही पता नहीं चला। पर दोनों की मेहनत आज नजर आ रही थी। इतने में बाहर कार आकर रुकी। उसमें से स्नेहा निकल कर बाहर आई। साथ में उसके मम्मी पापा भी थे। उन्हें देखकर समीर मुस्कुरा दिया और खुद आगे बढ़कर उन लोगों को अंदर लाने के लिए उनके पास चला गया। हमेशा शिफॉन की हल्की सी साड़ी पहनने वाली स्नेहा आज भारी चुनरी की साड़ी पहन कर आई थी। गहनों के नाम पर गले में बस एक हल्का सा मंगलसूत्र और कानों में छोटी बालिया थी। हाथों में लाख की चूड़ियां पहने हुए थी। पर फिर भी वह बहुत सुंदर लग रही थी। स्नेहा को इस तरह देखकर और समीर को उसके माता-पिता का इस तरह सम्मान करते देखकर माया ममता जी के पास आकर बोली, " देखा माँजी आपने। अपने माता-पिता को तो अपने साथ लेकर आई है और आपको भेज दिया रिश्तेदारों के साथ। यही सम्मान है आपका" उसकी बात सुनकर ममता जी बोली, " हां देख रही हूं बहू, पर अब इतने लोगों के बीच में क्या बोलूं? कितना ही सम्मान कर लो। रहेगा तो मेरा स्थान ही ऊंचा। आखिर उसके पति को मैंने जना है" समीर और स्नेहा हवन में बैठ गए और महज आधे घंटे में पूजा संपन्न हो गई। हवन पूजन के बाद भोजन की व्यवस्था वही की गई थी। सभी रिश्तेदारों ने भोजन का भी लुफ्त उठाया। खुद समीर और स्नेहा ने उसके माता-पिता को बिठाकर अपने हाथों से खाना परोसा। उन्हें खिला पिलाकर उन्हें अपने एक दोस्त के साथ उसकी कार से घर पर रवाना कर दिया। पर जाने से पहले स्नेहा की मां के लिए एक सुंदर सी साड़ी और उसके पिता के लिए शॉल जरूर गिफ्ट की। यह सब देखकर तो ममता जी और ज्यादा जल भून गई। कई रिश्तेदार तो वहां से चलते बने। अब फैक्ट्री में रह गए समीर, स्नेहा, ममता जी, माया और प्रदीप। माया ने मौका देखकर ताना मारा, " लो भाई, देवरानी तो बनी महारानी। अपने माता पिता को ही पूछ रही थी। सास को तो पूछना ही भूल गई। सच कहा है किसी ने खुद के माता-पिता के लिए ही जी दुखता है, सास-ससुर को तो कौन पूछे?" इतने में ममता जी ने भी कहा, " बेटी के घर से कौन माता-पिता गिफ्ट लेकर जाता है। इतना भी नहीं पता तेरे माता-पिता को। मेरे बेटे का फालतू का खर्चा करवा दिया। अपने माता-पिता को देने के लिए तो तेरे पास सब कुछ है। यहाँ तेरी सास जेठानी खड़ी है, उन्हें तो अभी तक तूने कुछ भी नहीं दिया" ये सुन कर स्नेहा मुस्कुराई और एक बैग लेकर आई। उसमें से एक साड़ी निकाल कर ममता जी को दी और एक साड़ी निकाल कर माया को पकड़ते हुए बोली, " ये रहा आप लोगों का गिफ्ट है" साड़ी को उलट-पुलट कर देखने के बाद माया बोली, " बस एक साड़ी? अपनी मां के बराबर ही हमको दे रही है। अरे हम तेरे ससुराल वाले हैं। हमारे लिए तो इससे ज्यादा बनता है" " जी बिल्कुल! आप के लिए से ज्यादा ही बनता है। मैं तो भूल ही गई थी। रुकिए जरा" कहकर स्नेहा अंदर गई और ऑफिस में से एक बड़ा सा बॉक्स निकाल कर लेकर आई, " यह आपके लिए जेठानी जी। ये आप रखिए" स्नेहा ने माया को वो बॉक्स पकड़ाया। वो काफी वजनदार था। उससे रहा नहीं गया तो उसने उसी समय उस बॉक्स को खोला। उसमें एक मर्तबान रखा हुआ था। उसे निकाल कर देखा तो उसमें आम का अचार रखा था। माया और ममता जी हैरानी से स्नेहा और समीर की तरफ देख रहे थे। तब समीर ने कहा, " माँ हैरानी से क्या देख रही हो? यह तो वही आम का आचार है ना जिसने हमें हमारी औकात बताई थी। यह आपके लिए हम से ज्यादा कीमती था। इसलिए इससे महंगी चीज तो और क्या हो सकती थी? आखिर इसी के लिए तो आपने स्नेहा को चोर साबित किया था। तो आपको यही लौटा रहे हैं" कहते हुए समीर ने हाथ जोड़ लिये। ममता जी कुछ कह ना पाई और माया और प्रदीप के साथ अपना सा मुंह लेकर वहां से रवाना हो गयी।

  • आत्म मूल्यांकन

    आत्म मूल्यांकन एक बार एक व्यक्ति कुछ पैसे निकलवाने के लिए बैंक में गया। जैसे ही कैशियर ने पेमेंट दी कस्टमर ने चुपचाप उसे अपने बैग में रखा और चल दिया। उसने एक लाख चालीस हज़ार रुपए निकलवाए थे। उसे पता था कि कैशियर ने ग़लती से एक लाख चालीस हज़ार रुपए देने के बजाय एक लाख साठ हज़ार रुपए उसे दे दिए हैं लेकिन उसने ये आभास कराते हुए कि उसने पैसे गिने ही नहीं और कैशियर की ईमानदारी पर उसे पूरा भरोसा है चुपचाप पैसे रख लिए। इसमें उसका कोई दोष था या नहीं लेकिन पैसे बैग में रखते ही 20,000 अतिरिक्त रुपयों को लेकर उसके मन में उधेड़ -बुन शुरू हो गई। एक बार उसके मन में आया कि फालतू पैसे वापस लौटा दे लेकिन दूसरे ही पल उसने सोचा कि जब मैं ग़लती से किसी को अधिक पेमेंट कर देता हूँ तो मुझे कौन लौटाने आता है??? बार-बार मन में आया कि पैसे लौटा दे लेकिन हर बार दिमाग कोई न कोई बहाना या कोई न कोई वजह दे देता पैसे न लौटाने की। लेकिन इंसान के अन्दर सिर्फ दिमाग ही तो नहीं होता… दिल और अंतरात्मा भी तो होती है… रह-रह कर उसके अंदर से आवाज़ आ रही थी कि तुम किसी की ग़लती से फ़ायदा उठाने से नहीं चूकते और ऊपर से बेईमान न होने का ढोंग भी करते हो। क्या यही ईमानदारी है? उसकी बेचैनी बढ़ती जा रही थी। अचानक ही उसने बैग में से बीस हज़ार रुपए निकाले और जेब में डालकर बैंक की ओर चल दिया। उसकी बेचैनी और तनाव कम होने लगा था। वह हल्का और स्वस्थ अनुभव कर रहा था। वह कोई बीमार थोड़े ही था लेकिन उसे लग रहा था जैसे उसे किसी बीमारी से मुक्ति मिल गई हो। उसके चेहरे पर किसी जंग को जीतने जैसी प्रसन्नता व्याप्त थी। रुपए पाकर कैशियर ने चैन की सांस ली। उसने कस्टमर को अपनी जेब से हज़ार रुपए का एक नोट निकालकर उसे देते हुए कहा, ‘‘भाई साहब आपका बहुत-बहुत आभार! आज मेरी तरफ से बच्चों के लिए मिठाई ले जाना। प्लीज़ मना मत करना।” ‘‘भाई आभारी तो मैं हूँ आपका और आज मिठाई भी मैं ही आप सबको खिलाऊँगा, ’’ कस्टमर ने बोला। कैशियर ने पूछा, ‘‘ भाई आप किस बात का आभार प्रकट कर रहे हो और किस ख़ुशी में मिठाई खिला रहे हो?’’ कस्टमर ने जवाब दिया, ‘‘आभार इस बात का कि बीस हज़ार के चक्कर ने मुझे आत्म-मूल्यांकन का अवसर प्रदान किया। आपसे ये ग़लती न होती तो न तो मैं द्वंद्व में फँसता और न ही उससे निकल कर अपनी लोभवृत्ति पर क़ाबू पाता। यह बहुत मुश्किल काम था।

  • ओहदे की कीमत || बेटी पढाओ,दहेज मिटाओ

    *ओहदे की कीमत(दहेज में)* चौबे जी का लड़का है अशोक, एमएससी पास। नौकरी के लिए चौबे जी निश्चिन्त थे, कहीं न कहीं तो जुगाड़ लग ही जायेगी। ब्याह कर देना चाहिए। मिश्रा जी की लड़की है ममता, वह भी एमए पहले दर्जे में पास है, मिश्रा जी भी उसकी शादी जल्दी कर देना चाहते हैं। सयानों से पोस्ट ग्रेजुएट लड़के का भाव पता किया गया। पता चला वैसे तो रेट पांच से छः लाख का चल रहा है, पर बेकार बैठे पोस्ट ग्रेजुएटों का रेट तीन से चार लाख का है। सयानों ने सौदा साढ़े तीन में तय करा दिया। बात तय हुए अभी एक माह भी नही हुआ था, कि पब्लिक सर्विस कमीशन से पत्र आया कि अशोक का डिप्टी कलक्टर के पद पर चयन हो गया है। चौबे- साले, नीच, कमीने... हरामजादे हैं कमीशन वाले...! पत्नि- लड़के की इतनी अच्छी नौकरी लगी है नाराज क्यों होते हैं? चौबे- अरे सरकार निकम्मी है, मैं तो कहता हूँ इस देश में क्रांति होकर रहेगी... यही पत्र कुछ दिन पहले नहीं भेज सकते थे, डिप्टी कलेक्टर का 40-50 लाख यूँ ही मिल जाता। पत्नि- तुम्हारी भी अक्ल मारी गई थी, मैं न कहती थी महीने भर रुक जाओ, लेकिन तुम न माने... हुल-हुला कर सम्बन्ध तय कर दिया... मैं तो कहती हूँ मिश्रा जी को पत्र लिखिये वो समझदार आदमी हैं। प्रिय मिश्रा जी, अत्रं कुशलं तत्रास्तु ! आपको प्रसन्नता होगी कि अशोक का चयन डिप्टी कलेक्टर के लिए हो गया है। विवाह के मंगल अवसर पर यह मंगल हुआ। इसमें आपकी सुयोग्य पुत्री के भाग्य का भी योगदान है। आप स्वयं समझदार हैं, नीति व मर्यादा जानते हैं। धर्म पर ही यह पृथ्वी टिकी हुई है। मनुष्य का क्या है, जीता मरता रहता है। पैसा हाथ का मैल है, मनुष्य की प्रतिष्ठा बड़ी चीज है। मनुष्य को कर्तव्य निभाना चाहिए, धर्म नहीं छोड़ना चाहिए। और फिर हमें तो कुछ चाहिए नहीं, आप जितना भी देंगे अपनी लड़की को ही देंगे।वर्तमान ओहदे के हिसाब से देख लीजियेगा फिर वरना हमें कोई मैचिंग रिश्ता देखना होगा। मिश्रा परिवार ने पत्र पढ़ा, विचार किया और फिर लिखा- प्रिय चौबे जी, आपका पत्र मिला, मैं स्वयं आपको लिखने वाला था। अशोक की सफलता पर हम सब बेहद खुश हैं। आयुष्मान अब डिप्टी कलेक्टर हो गया हैं। अशोक चरित्रवान, मेहनती और सुयोग्य लड़का है। वह अवश्य तरक्की करेगा। आपको जानकर प्रसन्नता होगी कि ममता का चयन आईएएस के लिए हो गया है। कलेक्टर बन कर आयुष्मति की यह इच्छा है कि अपने अधीनस्थ कर्मचारी से वह विवाह नहीं करेगी। मुझे यह सम्बन्ध तोड़कर अपार हर्ष हो रहा है। आज के आधुनिक समय में भी दहेज़ प्रथा नाम की बुराई हर जगह फैली हुई है। पिछड़े भारतीय समाज में दहेज़ प्रथा अभी भी विकराल रूप में है। *"बेटी पढाओ,दहेज मिटाओ"*

  • वकील साहब

    गुस्से को नियंत्रित करने का एक सुंदर उदाहरण एक वकील ने सुनाया हुआ एक ह्यदयस्पर्शी किस्सा "मै अपने चेंबर में बैठा हुआ था, एक आदमी दनदनाता हुआ अन्दर घुसा हाथ में कागज़ो का बंडल, धूप में काला हुआ चेहरा, बढ़ी हुई दाढ़ी, सफेद कपड़े जिनमें पांयचों के पास मिट्टी लगी थी उसने कहा, "उसके पूरे फ्लैट पर स्टे लगाना है बताइए, क्या क्या कागज और चाहिए... क्या लगेगा खर्चा... " मैंने उन्हें बैठने का कहा, "रग्घू, पानी दे इधर" मैंने आवाज़ लगाई वो कुर्सी पर बैठे उनके सारे कागजात मैंने देखे उनसे सारी जानकारी ली आधा पौना घंटा गुजर गया "मै इन कागज़ो को देख लेता हूं आपकी केस पर विचार करेंगे आप ऐसा कीजिए, बाबा, शनिवार को मिलिए मुझसे" चार दिन बाद वो फिर से आए वैसे ही कपड़े बहुत डेस्परेट लग रहे थे अपने भाई पर गुस्सा थे बहुत मैंने उन्हें बैठने का कहा वो बैठे ऑफिस में अजीब सी खामोशी गूंज रही थी मैंने बात की शुरवात की " बाबा, मैंने आपके सारे पेपर्स देख लिए आप दोनों भाई, एक बहन मा बाप बचपन में ही गुजर गए तुम नौवीं पास। छोटा भाई इंजिनियर आपने कहा कि छोटे भाई की पढ़ाई के लिए आपने स्कूल छोड़ा लोगो के खेतों में दिहाड़ी पर काम किया कभी अंग भर कपड़ा और पेटभर खाना आपको मिला नहीं पर भाई के पढ़ाई के लिए पैसा कम नहीं होने दिया।" "एक बार खेलते खेलते भाई पर किसी बैल ने सींग घुसा दिए लहूलुहान हो गया आपका भाई फिर आप उसे कंधे पर उठा कर 5 किलोमीटर दूर अस्पताल लेे गए सही देखा जाए तो आपकी उम्र भी नहीं थी ये समझने की, पर भाई में जान बसी थी आपकी मा बाप के बाद मै ही इन का मा बाप… ये भावना थी आपके मन में" "फिर आपका भाई इंजीनियरिंग में अच्छे कॉलेज में एडमिशन ले पाया आपका दिल खुशी से भरा हुआ था फिर आपने मरे दम तक मेहनत की 80,000 की सालाना फीस भरने के लिए आपने रात दिन एक कर दिया बीवी के गहने गिरवी रख के, कभी साहूकार कार से पैसा ले कर आपने उसकी हर जरूरत पूरी की" "फिर अचानक उसे किडनी की तकलीफ शुरू हो गई दवाखाने हुए, देवभगवान हुए, डॉक्टर ने किडनी निकालने का कहा तुम ने अगले मिनट ने अपनी किडनी उसे दे दी कहा कल तुझे अफसर बनना है, नोकरी करनी है, कहा कहा घूमेगा बीमार शरीर लेे के। मुझे गाव में ही रहना है, एक किडनी भी बस है मुझे ये कह कर किडनी दे दी उसे।" "फिर भाई मास्टर्स के लिए हॉस्टल पर रहने गया लड्डू बने, देने जाओ, खेत में मकई खाने तयार हुई, भाई को देने जाओ, कोई तीज त्योहार हो, भाई को कपड़े करो घर से हॉस्टल 25 किलोमीटर तुम उसे डिब्बा देने साइकिल पर गए हाथ का निवाला पहले भाई को खिलाया तुमने।" "फिर वो मास्टर्स पास हुआ, तुमने गाव को खाना खिलाया फिर उसने शादी कर ली तुम सिर्फ समय पर वहा गए उसी के कॉलेज की लड़की जो दिखने में एकदम सुंदर थी भाई को नौकरी लगी, 3 साल पहले उसकी शादी हुई, अब तुम्हारा बोझ हल्का होने वाला था।" "पर किसी की नज़र लग गई आपके इस प्यार को शादी के बाद भाई ने आना बंद कर दिया। पूछा तो कहता है मैंने बीवी को वचन दिया है घर पैसा देता नहीं, पूछा तो कहता है कर्ज़ा सिर पे है पिछले साल शहर में फ्लैट खरीदा पैसे कहा से आए पूछा तो कहता है कर्ज लिया है मेंने मना किया तो कहता है भाई, तुझे कुछ नहीं मालूम, तू निरा गवार ही रह गया अब तुम्हारा भाई चाहता है गांव की आधी खेती बेच कर उसे पैसा दे दे" इतना कह के मै रुका रग्घू ने लाई चाय की प्याली मैंने मुंह से लगाई " तुम चाहते हो भाई ने जो मांगा वो उसे ना दे कर उसके ही फ्लैट पर स्टे लगाया जाए क्या यही चाहते हो तुम"... वो तुरंत बोला, "हां" मैंने कहा, " हम स्टे लेे सकते है भाई के प्रॉपर्टी में हिस्सा भी मांग सकते है पर…. तुमने उसके लिए जो खून पसीना एक किया है वो नहीं मिलेगा तुमने दी हुई किडनी वापस नहीं मिलेगी, तुमने उसके लिए जो ज़िन्दगी खर्च की है वो भी वापस नहीं मिलेगी मुझे लगता है इन सब चीजो के सामने उस फ्लैट की कीमत शुन्य है भाई की नीयत फिर गई, वो अपने रास्ते चला गया अब तुम भी उसी कृतघ्न सड़क पर मत जाना" "वो भिकारी निकला, तुम दिलदार थे। दिलदार ही रहो ….. तुम्हारा हाथ ऊपर था, ऊपर ही रखो कोर्ट कचेरी करने की बजाय बच्चो को पढ़ाओ लिखाओ पढ़ाई कर के तुम्हारा भाई बिगड़ गया; इस का मतलब बच्चे भी ऐसा करेंगे ये तो नहीं होता" वो मेरे मुंह को ताकने लगा" उठ के खड़ा हुआ, सब काग़ज़ात उठाए और आंखे पोछते हुए कहा, "चलता हूं वकील साहब" उसकी रूलाई फुट रही थी और वो मुझे वो दिख ना जाए ऐसी कोशिश कर रहा था इस बात को अरसा गुजर गया कल वो अचानक मेरे ऑफिस में आया कलमो में सफेदी झांक रही थी उसके। साथ में एक नौजवान था हाथ में थैली मैंने कहा, "बाबा, बैठो" उसने कहा, "बैठने नहीं आया वकील साहब, मिठाई खिलाने आया हूं ये मेरा बेटा, बैंगलोर रहता है, कल आया गांव अब तीन मंजिला मकान बना लिया है वहा थोड़ी थोड़ी कर के 10–12 एकड़ खेती खरीद ली अब" मै उसके चेहरे से टपकते हुए खुशी को महसूस कर रहा था "वकील साहब, आपने मुझे कहा, कोर्ट कचेरी के चक्कर में मत लगो गांव में सब लोग मुझे भाई के खिलाफ उकसा रहे थे मैंने उनकी नहीं, आपकी बात सुन ली मैंने अपने बच्चो को लाइन से लगाया और भाई के पीछे अपनी ज़िंदगी बरबाद नहीं होने दी कल भाई भी आ कर पाव छू के गया माफ कर दे मुझे ऐसा कह गया" मेरे हाथ का पेडा हाथ में ही रह गया मेरे आंसू टपक ही गए आखिर. .. . गुस्से को योग्य दिशा में मोड़ा जाए तो पछताने की जरूरत नहीं पड़े कभी बहुत ही अच्छा है पर कोई समझे और अमल करे तब सफल हो... मन...

  • परेशानियाँ दूर करने वाला पेड़

    एक महिला थी। रोज वह और उसके पति सुबह ही काम पर निकल जाते थे। दिन भर पति ऑफिस में अपना टारगेट पूरा करने की *‘डेडलाइन’* से जूझते हुए साथियों की होड़ का सामना करता था।_ _बॉस से कभी प्रशंसा तो मिली नहीं और तीखी- कटीली आलोचना चुपचाप सहता रहता था।_ _पत्नी सरला भी- एक प्रावेट कम्पनी में जॉब करती थी। वह अपने ऑफिस में दिनभर परेशान रहती थी।_ _ऐसी ही परेशानियों से जूझकर सरला लौटती है, खाना बनाती है,शाम को घर में प्रवेश करते ही बच्चों को, वे दोनों - नाकारा होने के लिए डाँटते थे।_ _पति और बच्चों की अलग-अलग फरमाइशें पूरी करते-करते बदहवास और चिड़चिड़ी हो जाती है।_ _घर और बाहर के सारे काम उसी की जिम्मेदारी हैं।_ _थक-हार कर वह अपने जीवन से निराश होने लगती है। उधर पति दिन पर दिन अशांत होता जा रहा है।बच्चे विद्रोही हो चले हैं।_ _एक दिन सरला के घर का नल खराब हो जाता है। उसने प्लम्बर को नल ठीक करने के लिए बुलाया। प्लम्बर ने आने में देर कर दी।_ _पूछने पर बताया: कि साइकिल में पंक्चर के कारण देर हो गई। घर से लाया खाना मिट्टी में गिर गया,ड्रिल मशीन खराब हो गई,जेब से पर्स गिर गया...।_ _इन सब का बोझ लिए वह नल ठीक करता रहा।_ _काम पूरा होने पर महिला को दया आ गई- और वह उसे गाड़ी से, उसके घर छोड़ने चली गई।_ _प्लंबर ने उसे बहुत ही आदर से-चाय पीने का आग्रह किया।_ _प्लम्बर के घर के बाहर एक पेड़ था। प्लम्बर ने पास जाकर उसके पत्तों को सहलाया,चूमा और अपना थैला उस पर टांग दिया।घर में प्रवेश करते ही उसका चेहरा खिल उठा। बच्चों को प्यार किया,मुस्कराती पत्नी को स्नेह भरी दृष्टि से देखा और चाय बनाने के लिए कहा।_ _सरला यह देखकर हैरान थी। बाहर आकर पूछने पर प्लंबर ने बताया - यह मेरा परेशानियाँ दूर करने वाला पेड़ है।_ _मैं सारी समस्याओं का बोझा, रातभर के लिए इस पर टाँग देता हूं। और घर में कदम रखने से पहले मुक्त हो जाता हूँ।_ _चिंताओं को अंदर नहीं ले जाता।सुबह जब थैला उतारता हूं- तो वह पिछले दिन से कहीं हलका होता है। काम पर कई परेशानियाँ आती हैं, पर एक बात पक्की है- मेरी पत्नी और बच्चे उनसे अलग ही रहें, यह मेरी कोशिश रहती है। इसीलिए इन समस्याओं को बाहर छोड़ आता हूं। प्रार्थना करता हूँ- कि भगवान मेरी मुश्किलें आसान कर दें। मेरे बच्चे मुझे बहुत प्यार करते हैं, पत्नी मुझे बहुत स्नेह देती है,तो भला मैं उन्हें परेशानियों में क्यों रखूँ।उसने राहत पाने के लिए कितना बड़ा दर्शन खोज निकाला था...!_ _यह घर-घर की हकीकत है।_ _गृहस्थ का घर एक तपोभूमि है।सहनशीलता और संयम खोकर कोई भी इसमें सुखी नहीं रह सकता। जीवन में कुछ भी स्थायी नहीं, हमारी समस्याएं भी नहीं।_ _प्लंबर का वह *‘समाधान-वृक्ष’ एक प्रतीक है* क्यों न हम सब भी एक-एक वृक्ष ढूँढ़ लें, ताकि घर की दहलीज पार करने से पहले अपनी सारी चिंताएं बाहर ही टाँग आएँ। *_सदैव प्रसन्न रहिये।_* *_जो प्राप्त है वही पर्याप्त है...!!

  • रस्म

    #रस्म #एक_हाउसवाइफ_कहानी_की बर्तन गिरने की आवाज़ से शिखा की आँख खुल गयी। घडी देखी तो आठ बज रहे थे , वह हड़बड़ा कर उठी। “उफ़्फ़ ! मम्मी जी ने कहा था कल सुबह जल्दी उठना है , ””””रसोई”””” की रस्म करनी है, हलवा-पूरी बनाना है… और मैं हूँ कि सोती ही रह गयी। अब क्या होगा…! पता नहीं, मम्मी जी, डैडी जी क्या सोचेंगे, कहीं मम्मी जी गुस्सा न हो जाएँ। हे भगवान!” उसे रोना आ रहा था। ””””ससुराल”””” और ””””सास”””” नाम का हौवा उसे बुरी तरह डरा रहा था। कहा था दादी ने- ””””””””ससुराल है, ज़रा संभल कर रहना। किसी को कुछ कहने मौका न देना, नहीं तो सारी उम्र ताने सुनने पड़ेंगे। सुबह-सुबह उठ जाना, नहा-धोकर साड़ी पहनकर तैयार हो जाना, अपने सास-ससुर के पाँव छूकर उनसे आशीर्वाद लेना। कोई भी ऐसा काम न करना जिससे तुम्हें या तुम्हारे माँ-पापा को कोई उल्टा-सीधा बोले। ” शिखा के मन में एक के बाद एक दादी की बातें गूँजने लगीं थीं। किसी तरह वह भागा-दौड़ी करके तैयार हुई। ऊँची-नीची साड़ी बाँध कर वह बाहर निकल ही रही थी कि आईने में अपना चेहरा देखकर वापस भागी-न बिंदी, न सिन्दूर -आदत नहीं थी तो सब लगाना भूल गयी थी। ढूँढकर बिंदी का पत्ता निकाला। फिर सिन्दूरदानी ढूँढने लगी…. जब नहीं मिली तो लिपस्टिक से माथे पर हल्की सी लकीर खींचकर कमरे से बाहर आई। जिस हड़बड़ी में शिखा कमरे से बाहर आई थी, वह उसके चेहरे से, उसकी चाल से साफ़ झलक रही थी। लगभग भागती हुई सी वह रसोई में दाख़िल हुई और वहाँ पहुँचकर ठिठक गयी। उसे इस तरह हड़बड़ाते हुए देखकर सासू माँ ने आश्चर्य से उसकी तरफ़ देखा। फिर ऊपर से नीचे तक उसे निहारकर धीरे से मुस्कुराकर बोलीं, “आओ बेटा! नींद आई ठीक से या नहीं ?” अचकचाकर बोली,”जी मम्मी जी! नींद तो आई, मगर ज़रा देरी से आई, इसीलिए सुबह जल्दी आँख नहीं खुली …सॉरी…. ” बोलते हुए उसकी आवाज़ से डर साफ़ झलक रहा था। सासू माँ बोलीं, ” कोई बात नहीं बेटा! नई जगह है… हो जाता है !” शिखा हैरान होकर उनकी ओर देखने लगी, फिर बोली, “मगर…मम्मी जी, वो हलवा-पूरी?” सासू माँ ने प्यार से उसकी तरफ़ देखा और पास रखी हलवे की कड़ाही उठाकर शिखा के सामने रख दी, और शहद जैसे मीठे स्वर में बोलीं, “हाँ! बेटा! ये लो! इसे हाथ से छू दो!” शिखा ने प्रश्नभरी निगाहों से उनकी ओर देखा। उन्होंने उसकी ठोड़ी को स्नेह से पकड़ कर कहा, “बनाने को तो पूरी उम्र पड़ी है! मेरी इतनी प्यारी, गुड़िया जैसी बहू के अभी हँसने-खेलने के दिन हैं, उसे मैं अभी से किचेन का काम थोड़ी न कराऊँगी। तुम बस अपनी प्यारी- सी, मीठी मुस्कान के साथ सर्व कर देना -आज की रस्म के लिए इतना ही काफ़ी है।” सुनकर शिखा की आँखों में आँसू भर आए। वह अपने-आप को रोक न सकी और लपक कर उनके गले से लग गई ! उसके रुँधे हुए गले से सिर्फ़ एक ही शब्द निकला – “#माँ ! {दोस्तो स्टोरी कैसी लगी... ?} पोस्ट पसंद आये तो फॉलो करना

  • गाँव में तो डिप्रेशन को भी डिप्रेशन हो जायेगा।

    गाँव में तो डिप्रेशन को भी डिप्रेशन हो जायेगा। उम्र 25 से कम है और सुबह दौड़ने निकल जाओ तो गाँव वाले कहना शुरू कर देंगे कि “लग रहा सिपाही की तैयारी कर रहा है " फ़र्क़ नही पड़ता आपके पास गूगल में जॉब है। 30 से ऊपर है और थोड़ा तेजी से टहलना शुरू कर दिये तो गाँव में हल्ला हो जायेगा कि “लग रहा इनको शुगर हो गया " कम उम्र में ठीक ठाक पैसा कमाना शुरू कर दिये तो आधा गाँव ये मान लेगा कि आप कुछ दो नंबर का काम कर रहे है। जल्दी शादी कर लिये तो “बाहर कुछ इंटरकास्ट चक्कर चल रहा होगा इसलिये बाप जल्दी कर दिये " शादी में देर हुईं तो “दहेज़ का चक्कर बाबू भैया, दहेज़ का चक्कर, औकात से ज्यादा मांग रहे है लोग " बिना दहेज़ का कर लिये तो “लड़का पहले से सेट था, इज़्ज़त बचाने के चक्कर में अरेंज में कन्वर्ट कर दिये लोग" खेत के तरफ झाँकने नही जाते तो “बाप का पैसा है " खेत गये तो “नवाबी रंग उतरने लगा है " बाहर से मोटे होकर आये तो गाँव का कोई खलिहर ओपिनियन रखेगा “लग रहा बियर पीना सीख गया " दुबले होकर आये तो “लग रहा सुट्टा चल रहा " कुलमिलाकर गाँव के माहौल में बहुत मनोरंजन है इसलिये वहाँ से निकले लड़के की चमड़ी इतनी मोटी हो जाती है कि आप उसके रूम के बाहर खडे होकर गरियाइये वो या तो कान में इयरफोन ठूंस कर सो जायेगा या फिर उठकर आपको लतिया देगा लेकिन डिप्रेशन में न जायेगा। और ज़ब गाँव से निकला लड़का बहुत उदास दिखे तो समझना कोई बड़ी त्रासदी है।

  • नमक मत डालना || एक दिन भोजन में नमक छोड़ने का नियम बना रही हूंँ

    #नमक...!! "बहू!.आज किसी भी सब्जी या दाल में नमक मत डालना।" "क्यों माँजी?" "सभी के लिए हफ्ते में एक दिन भोजन में नमक छोड़ने का नियम बना रही हूंँ।" घर की नई नवेली छोटी बहू को अपने कमरे में बुलाकर सास ने समझाया और सास की बात सुन छोटी बहू ने सर हिलाकर सहमति जताई.. "ठीक है माँजी!" छोटी बहू सास के कमरे से बाहर जाने को मुड़ी ही थी कि सास ने फिर से छोटी बहू को टोका.. "सुन बहू!" "जी माँजी?" "यह बात तुम किसी को मत बताना!. भोजन के वक्त मैं खुद सभी को बता दूंगी।" "जी माँजी!" घर की छोटी बहू मुस्कुराते हुए अपनी सास के कमरे से बाहर चली गई। छोटी बहू के जाते ही उस घर की बड़ी बहू ने सास के कमरे में प्रवेश किया.. "माँजी!.लाइए आपके सर में तेल लगा दूं।" यह कहते हुए उसने अपने साथ लाई ठंडे तेल की शीशी का ढक्कन खोल हथेली भर तेल उढ़ेल लिया और सास ने भी मुस्कुरा कर उसका स्वागत किया। "मांँजी!..आपने आज छोटी को अपने कमरे में बुलाया,.कोई खास बात थी क्या?" अपनी सास के माथे पर तेल की चंपी करती बड़ी बहू ने जानना चाहा। "डांटने के लिए बुलाया था मैंने उसे!" "क्यों?" "हर रोज भोजन में नमक ज्यादा डाल देती है।" "आपने अच्छा किया माँजी!. उसे रसोई नहीं आती लेकिन यह बात वह मानने को तैयार नहीं।" बड़ी बहू की बात सुनती सास चुप रही कुछ बोली नहीं लेकिन बड़ी बहू ने अपनी मन की बात सास के सामने रखी.. "मांँजी!.आप कहे तो मैं फिर से रसोई संभाल लूं!. और उसे साफ-सफाई जैसे बाहर के काम जो आजकल मैं करती हूंँ आप उसे दे दीजिए।" "नहीं!.अभी नहीं!. आज भर देख लेती हूंँ।" सास ने मुस्कुराते हुए बड़ी बहू को आश्वासन दिया और सास की बात सुन बड़ी बहू ठंडे तेल की शीशी ले वापस सास के कमरे से बाहर चली गई। इधर भोजन का वक्त होते ही छोटी बहू ने सभी के लिए भोजन की थाली सजा दी। भोजन का पहला निवाला मुंह में डालते ही सास मुस्कुराई.. "आज भोजन बहुत स्वादिष्ट बना है!" वही रसोई के दरवाजे के पर्दे की ओट में खड़ी छोटी बहू को आश्चर्य हुआ क्योंकि उसकी सास के साथ-साथ घर के सभी सदस्य भी बड़े मन से बिना कोई नमक की शिकायत किए स्वाद लेकर भोजन कर रहे थे। भोजन समाप्त कर सास ने बड़ी बहू को अपने कमरे में आने का इशारा किया। सास का इशारा पा बड़ी बहू झटपट कमरे में पहुंची.. "मांँजी!.अपने मुझे बुलाया?" "बहू!.मुझे पता है कि,. तुम रसोई अच्छी तरह संभाल लेती हो और तुम्हें भोजन में नमक डालने का सही अंदाजा भी है।" सास के मुंह से अपनी तारीफ सुन बड़ी बहू खुश हुई.. "जी माँजी!" "लेकिन बने-बनाए भोजन में दुबारा नमक मिला देने से स्वाद बिगड़ जाता है!. शायद इस बात का अंदाजा तुम्हें नहीं है।" अपनी सास की बात सुन बड़ी बहू चौंक गई कुछ बोल ना सकी लेकिन सास ने अपनी बात पूरी कि.. "मैंने छोटी बहू को अपने कमरे में बुलाकर आज की रसोई में नमक डालने से मना किया था लेकिन फिर भी,. भोजन में नमक की मात्रा बिल्कुल सही थी।" यह सुनते ही बड़ी बहू के पैरों तले जमीन खिसक गई वह सास के पैरों में गिर पड़ी.. "मांँजी!.मुझे माफ कर दीजिए।" सास ने उसे प्यार से अपनी बाहों में थाम कर उठा.. "बहू!.तुमने अपनी गलती मानी यही बड़ी बात है,. लेकिन फिर भी मैं आज से घर के कामों के बंटवारे में एक संशोधन कर रही हूंँ।" बड़ी बहू सर झुकाए खड़ी रही लेकिन सास ने अपना फैसला सुनाया.. "आज से तुम घर की साफ-सफाई के साथ-साथ रसोई में जाकर भोजन बनाने में छोटी बहू को मदद भी किया करोगी!. ताकि वह तुम्हारी तरह नमक का सही अंदाजा सीख सके।" सास की बातों में स्वीकृति भाव से सर हिला आत्मग्लानि से भरी अपनी सास के कमरे से बाहर निकली बड़ी बहू ने रसोई में जाकर अपनी देवरानी को गले लगाया.. "मुझे माफ कर दो छोटी!" भीतर के कमरे में सास-जेठानी के बीच हुई बातचीत से अनभिज्ञ छोटी बहू अपनी जेठानी का यह रूप देख हैरान किंतु अपनी जेठानी का आत्मिक स्नेह पाकर भाव-विभोर हुई।

  • अतुलनीय रिश्ता

    दिसंबर की कड़ाके की ठिठुरा देने वाली ठंड.... ऐसे मे दिल्ली तक के सफ़र में रात मे ट्रेन में सब अपने अपने गर्म लिहाफ़ मे दुबके थे.... श्रवण भी अपनी सीट पर बस दुबकने की ही तैयारी कर रहा था। सोने से पूर्व एक बार फ्रेश होने के इरादे से वो वॉशरूम की तरफ़ गया। वॉशरूम के बाहर की ओर दरवाजे के सामने एक अधेड़ उम्र की महिला एक छोटा सा थैला लिए बैठी थी... शायद उसमें उसका सामान था। गर्म कपड़ों के नाम पर मात्र एक पतला सा शॉल ओढ़े हुए थी...जो ठंड से राहत देने के लिए काफ़ी नही थी...श्रवण ने देखा...महिला की आँखों में आँसू की बूंदें थी..जो बार बार गालों पर लुढ़क जाती.. और महिला शॉल से उसे पौंछ देती... तभी बाजू वाले ट्रैक पर कोई ट्रेन गुज़री.....उससे आती हवा में वह महिला सिहर उठी....कंप-कंपा कर स्वयं को स्वयं मे लपेटने का प्रयास करने लगी। "कहाँ जा रहीं हैं आप...."अचानक श्रवण ने पूछ लिया। महिला ने चेहरा ऊपर किया... श्रवण को देखा। "मथुरा...."महिला ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया। "टिकट नहीं लिया...."श्रवण ने पूछा। "बेटा... अचानक जाना पड़ रहा है... टीसी आएगा... तो ले लूंगी..."महिला ने आँसू पोंछते हुए कहा। "क्यों... ऐसे अचानक क्यों.... इतनी ठंड में.... आपको रिजर्वेशन करवाना चाहिए था..."पता नही क्यों पर श्रवण को उस महिला से एक जुड़ाव सा महसूस हो रहा था। "बेटा....अभी पता चला कि मेरी बेटी प्रसव के दौरान चल बसी.."कहते कहते महिला फ़फक पड़ी। "ओह.... तो आप अकेली.... परिवार का कोई और सदस्य..." श्रवण ने कुछ पूछना चाहा। "कोई भी नहीं है... हम माँ बेटी ही एक दूसरे का सहारा थीं... अभी साल हुआ... बिटिया का ब्याह किया था...."महिला सिसकती हुई बोली। इतने में टीसी आ गया।श्रवण महिला की मनःस्थिति बखूबी समझ रहा था, उसने महिला का टिकट बनवाया और उसे सीट पर बैठाकर.... अपना एक कंबल निकालकर उसे औढाया.... महिला अचरच भरी निगाहों से बस उसे देखती रही... बेचारी कुछ भी बोलने की स्थिति में नहीं थी...उसे तो श्रवण के रूप में जैसे स्वयं ईश्वर मिल गए थे। "मांजी.... आप ये हज़ार रुपये अपने पास रखें... और अपना पता मुझे नोट करवा दीजिए.... और फिर कभी ऐसा मत कहिएगा कि आपका इस दुनिया में कोई नहीं.... ये आपका बेटा है न... हर महीने जितना भी संभव हो.... पैसे भेजेगा... और जब कभी मौका लगेगा... मैं आपसे मिलने भी आऊंगा.... मांजी मैं आप पर कोई उपकार नही कर रहा हूँ.... मुझे भी आपके रूप में माँ मिली है...."कहकर श्रवण ने महिला के चरण स्पर्श कर लिए। महिला की आँखों से अविरल अश्रुधार प्रवाहित हो रही थी.... उसे सबकुछ स्वप्न की तरह प्रतीत हो रहा था....। महिला कंबल औढ़े चुपचाप लेटी श्रवण को निहार रही थी और श्रवण वॉलेट मे लगे अपनी माँ की तस्वीर को देख रहा था.....। कड़ाके की ठंड में जहाँ लोग अपने अपने बिस्तरों मे दुबके हुए थे.....वहाँ अपने पन के गर्म लिहाफ से ज़िंदगी के सफ़र मे एक अतुलनीय रिश्ता वज़ूद ले चुका था।

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